Sunday, November 27, 2022

क्या में वही हूं जो दिखती हूं?

मैं कभी कभी सोचती हूं,
क्या मैं वही हूं जो दिखती हूं।
क्या मेरा हर निर्णय स्वयं मेरा है?
क्योंकि ऐसा नही है तो,
मैं भी समाज द्वारा विशेष ढांचे में ढाली गई हूं।

कभी लगता है मेरा हृदय कोमल है,
कोमलता मेरा अपना स्वभाव है।
मैं जब औरों को दुत्कारती हूं,
तब मुझे ये समाज का रिवाज नज़र आता है।
जब भी दिल टूटता है रोती हूं,
मुझे आंसू स्वयं यथार्थ का बोध लगते है।
साथ ही जब किसी को रोता छोड़ती हूं,
तो मुझे ये आम सामाजिक घटना दिखती है।

अपनी चोट पर क्यों चीख उठती हूं,
जबकि अन्य के मांस के चिथड़े,
 केवल वीभत्स दिखाई पढ़ते है।
मेरे पास समाज की कुरीतियों की फेहरिस्त है,
परिवर्तन की सोच की जगह, 
समय के अभाव के बहाने लिए फिरती हूं।

खुद को टटोलती हूं, तो पूछती हूं।
किस चीज का अभाव है मेरे पास?
समय का, हिम्मत का, सही दिशा का
या एक अच्छी वजह का।
भीतर गहरे कुएं से एक आवाज आती हैं,
समाज की ओठ से निकल खुद के,
कर्तव्य को पूरा करने की जरूरत का।
फिर मैं स्वयं से नज़रे मिलने से बचती हूं,
क्योंकि असल सत्य मुझे हमेशा से मालूम रहा है।

की लक्ष्य साधने वालों को समय का,
अभाव विचलित नहीं करता।
हिम्मत करने वालों के लिए,
मदद के हाथ हमेशा मौजूद होते हैं।
सही दिशा के लिए अनुभव,
स्वयं एक मशाल है।
अच्छी वजह के लिए उठाए गए कदम बताते है।
हम असल में क्या वही हैं जो हम दिखते है।।

Thursday, November 11, 2021

एक संवाद स्वयं से

जब भी लिखती हूं तो सोचती हूं
क्या ही लिख लूंगी इस बार
वो तो न ही लिख पाऊंगी,जिसे लिखने के सपने देखती हूं।
सोचती हूं जो दिमाग में है वो पन्नो में होना जरूरी है
फिर पन्ने ढूंढती हूं लिखने के लिए कलम उठती हूं।
अचानक यादस्त जाती सी महसूस होती है
शब्द गैस के भरे गुब्बारे से बंध कर दूर आसमान में जाते से लगते हैं।
जो लिखना था वो याद नही आता
पर हर शब्द की टीस परछाई की तरह लगती है।
जैसे ही कुछ पढ़ने की कोशिश करती हूं
कोई उम्मीद का सूरज डूबा देता हैं।
ख्याल आता है घर में एक मोमबत्ती रखी है 
अंधेरे में कुर्सी से उठ कर अदृश्य चीजों का सहारा लिए
ढूंढती हूं सोचती हूं आखरी बार कहां रख कर भूली थी उसे।
याद आता है हर हार के बाद सूरज डूबने के बाद
मैं कुर्सी से उठ कर बगल में बिस्तर पर मार जाती थी
अगली सुबह ही कुछ लिखूंगी सोच कर।
पर इस बार जब सोच ही लिया है मोमबत्ती जलाने का तो
मोमबत्ती से पहले माचिस मिल गई है।
हर बार जब भी मैने मोमबत्ती जलाने की सोची है
तो पहला खयाल मोमबत्ती का ही रहा है
इसलिए ही मोमबत्ती ना ढूंढ पाने पर मैं
निहाल सी बिस्तर पर पढ़ जाती थी।
इस बार पहले माचिस मिली है तो समझ आया
पहले जरूरत माचिस की है
इसके उजाले से मोमबत्ती ढूढी जा सकती थी।
माचिस की जगह तो मुझे हमेशा से मालूम थी 
वो मेज के पास बने छोटे से खाने में सिगरेट के डब्बे के पास है
मुझे मोमबत्ती का ख्याल पहले क्यों आया ?
इसलिए की मैं सिगरेट पीती हूं
पर माचिस जेब में नही रखती
या मुझे ये लगा की मोमबत्ती से रोशनी होती हैं
फिलहाल मैं मोमबत्ती खोज रही हूं
इसकी कितनी उम्मीद है कि मोमबत्ती मिल जाने पर
मैं परछाई पढ़ सकूंगी शब्दों की
और उन्हें पन्नो पर उतार दूंगी।

Saturday, April 3, 2021

अधिकार

 

अब व्यर्थ है हर किसी से अपना हक मांगना, 

अब व्यर्थ है अपने अस्तित्व को कम किसी से आक्ना

अब व्यर्थ है समाज के ढँग मे खुद को ढालना

अब व्यर्थ है असंतोष मे परितोष को झाकना

अब व्यर्थ है स्त्री हूँ कह अपने सपनो को छाटना

अब व्यर्थ है अभिमानियों के लिए अपने स्वाभिमान को त्यागना

अब व्यर्थ है जिंदगी के सही अर्थ को न खोजना


अब अर्थ है कठिनाइ से लड़ उचाइयों को चूमना

अब अर्थ है आपस मे मिल, कदम से कदम नई राह जोड़ना

अब अर्थ है खुद को सुधार, नये समाज मे ढालना

अब अर्थ है सबको अपनाकर, धिकारिता को त्यागना 

अब अर्थ है सपनो को, सानों की तरह जीना

अब अर्थ है खुद को, खुद की नज़र से चाहना। 

अब अर्थ है नई विधि से, नये सिधांतों को स्वीकारना। 

क्या में वही हूं जो दिखती हूं?

मैं कभी कभी सोचती हूं, क्या मैं वही हूं जो दिखती हूं। क्या मेरा हर निर्णय स्वयं मेरा है? क्योंकि ऐसा नही है तो, मैं भी समाज द्वारा विशेष ढां...