मैं कभी कभी सोचती हूं,
क्या मैं वही हूं जो दिखती हूं।
क्या मेरा हर निर्णय स्वयं मेरा है?
क्योंकि ऐसा नही है तो,
मैं भी समाज द्वारा विशेष ढांचे में ढाली गई हूं।
कभी लगता है मेरा हृदय कोमल है,
कोमलता मेरा अपना स्वभाव है।
मैं जब औरों को दुत्कारती हूं,
तब मुझे ये समाज का रिवाज नज़र आता है।
जब भी दिल टूटता है रोती हूं,
मुझे आंसू स्वयं यथार्थ का बोध लगते है।
साथ ही जब किसी को रोता छोड़ती हूं,
तो मुझे ये आम सामाजिक घटना दिखती है।
अपनी चोट पर क्यों चीख उठती हूं,
जबकि अन्य के मांस के चिथड़े,
केवल वीभत्स दिखाई पढ़ते है।
मेरे पास समाज की कुरीतियों की फेहरिस्त है,
परिवर्तन की सोच की जगह,
समय के अभाव के बहाने लिए फिरती हूं।
खुद को टटोलती हूं, तो पूछती हूं।
किस चीज का अभाव है मेरे पास?
समय का, हिम्मत का, सही दिशा का
या एक अच्छी वजह का।
भीतर गहरे कुएं से एक आवाज आती हैं,
समाज की ओठ से निकल खुद के,
कर्तव्य को पूरा करने की जरूरत का।
फिर मैं स्वयं से नज़रे मिलने से बचती हूं,
क्योंकि असल सत्य मुझे हमेशा से मालूम रहा है।
की लक्ष्य साधने वालों को समय का,
अभाव विचलित नहीं करता।
हिम्मत करने वालों के लिए,
मदद के हाथ हमेशा मौजूद होते हैं।
सही दिशा के लिए अनुभव,
स्वयं एक मशाल है।
अच्छी वजह के लिए उठाए गए कदम बताते है।
हम असल में क्या वही हैं जो हम दिखते है।।
2 comments:
Likhte rho.. Badhte rho
Very Nice.
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