Thursday, November 11, 2021

एक संवाद स्वयं से

जब भी लिखती हूं तो सोचती हूं
क्या ही लिख लूंगी इस बार
वो तो न ही लिख पाऊंगी,जिसे लिखने के सपने देखती हूं।
सोचती हूं जो दिमाग में है वो पन्नो में होना जरूरी है
फिर पन्ने ढूंढती हूं लिखने के लिए कलम उठती हूं।
अचानक यादस्त जाती सी महसूस होती है
शब्द गैस के भरे गुब्बारे से बंध कर दूर आसमान में जाते से लगते हैं।
जो लिखना था वो याद नही आता
पर हर शब्द की टीस परछाई की तरह लगती है।
जैसे ही कुछ पढ़ने की कोशिश करती हूं
कोई उम्मीद का सूरज डूबा देता हैं।
ख्याल आता है घर में एक मोमबत्ती रखी है 
अंधेरे में कुर्सी से उठ कर अदृश्य चीजों का सहारा लिए
ढूंढती हूं सोचती हूं आखरी बार कहां रख कर भूली थी उसे।
याद आता है हर हार के बाद सूरज डूबने के बाद
मैं कुर्सी से उठ कर बगल में बिस्तर पर मार जाती थी
अगली सुबह ही कुछ लिखूंगी सोच कर।
पर इस बार जब सोच ही लिया है मोमबत्ती जलाने का तो
मोमबत्ती से पहले माचिस मिल गई है।
हर बार जब भी मैने मोमबत्ती जलाने की सोची है
तो पहला खयाल मोमबत्ती का ही रहा है
इसलिए ही मोमबत्ती ना ढूंढ पाने पर मैं
निहाल सी बिस्तर पर पढ़ जाती थी।
इस बार पहले माचिस मिली है तो समझ आया
पहले जरूरत माचिस की है
इसके उजाले से मोमबत्ती ढूढी जा सकती थी।
माचिस की जगह तो मुझे हमेशा से मालूम थी 
वो मेज के पास बने छोटे से खाने में सिगरेट के डब्बे के पास है
मुझे मोमबत्ती का ख्याल पहले क्यों आया ?
इसलिए की मैं सिगरेट पीती हूं
पर माचिस जेब में नही रखती
या मुझे ये लगा की मोमबत्ती से रोशनी होती हैं
फिलहाल मैं मोमबत्ती खोज रही हूं
इसकी कितनी उम्मीद है कि मोमबत्ती मिल जाने पर
मैं परछाई पढ़ सकूंगी शब्दों की
और उन्हें पन्नो पर उतार दूंगी।

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