Thursday, November 11, 2021
एक संवाद स्वयं से
Saturday, April 3, 2021
अधिकार
अब व्यर्थ है हर किसी से अपना हक मांगना,
अब व्यर्थ है अपने अस्तित्व को कम किसी से आक्ना
अब व्यर्थ है समाज के ढँग मे खुद को ढालना
अब व्यर्थ है असंतोष मे परितोष को झाकना
अब व्यर्थ है स्त्री हूँ कह अपने सपनो को छाटना
अब व्यर्थ है अभिमानियों के लिए अपने स्वाभिमान को त्यागना
अब व्यर्थ है जिंदगी के सही अर्थ को न खोजना
अब अर्थ है कठिनाइ से लड़ उचाइयों को चूमना
अब अर्थ है आपस मे मिल, कदम से कदम नई राह जोड़ना
अब अर्थ है खुद को सुधार, नये समाज मे ढालना
अब अर्थ है सबको अपनाकर, धिकारिता को त्यागना
अब अर्थ है सपनो को, सानों की तरह जीना
अब अर्थ है खुद को, खुद की नज़र से चाहना।
अब अर्थ है नई विधि से, नये सिधांतों को स्वीकारना।
Friday, April 2, 2021
रुद्र
निशब्द सा ठेहरा हूँ,
अनंत सा गहरा हूँ।
चित मे, सोच मे, गहन मे भी मैं ही हूँ।
जो ना बुझें वो सवाल मे भी मैं ही हूँ।
शब्द हूँ, अर्थ हूँ, भावार्थ मे भी मैं ही हूँ।
कल्पना जो पूर्ण हो,
उस उपसंगहार मे भी मैं ही हूँ।
खुश्क हूँ, रश्क हूँ, प्रतिहार भी मैं ही हूँ।
सूक्ष्म से कण के भीतर
विशाल सा संसार मैं ही हूँ।
तिरस्कार, संहार और श्रृंगार मे भी मैं ही हूँ।
श्वेत रंगों मे है सिमटा
इंद्रधनुष के पार अंधकार मे भी मैं ही हूँ।
स्वच्छ हूँ, परिपक हूँ और धेर्यवान मैं ही हूँ।
सत्य असत्य के परे
पारदर्शीता का उत्तर केवल मैं ही हूँ।
क्या में वही हूं जो दिखती हूं?
मैं कभी कभी सोचती हूं, क्या मैं वही हूं जो दिखती हूं। क्या मेरा हर निर्णय स्वयं मेरा है? क्योंकि ऐसा नही है तो, मैं भी समाज द्वारा विशेष ढां...
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जब भी लिखती हूं तो सोचती हूं क्या ही लिख लूंगी इस बार वो तो न ही लिख पाऊंगी,जिसे लिखने के सपने देखती हूं। सोचती हूं जो दिमाग में है वो पन्नो...
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मैं कभी कभी सोचती हूं, क्या मैं वही हूं जो दिखती हूं। क्या मेरा हर निर्णय स्वयं मेरा है? क्योंकि ऐसा नही है तो, मैं भी समाज द्वारा विशेष ढां...
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स्व प्रेरणा कहने को तो यूं में हारा नहीं क्योंकि हर कश्ती का किनारा नहीं रूबरू हूं में...