अब व्यर्थ है हर किसी से अपना हक मांगना,
अब व्यर्थ है अपने अस्तित्व को कम किसी से आक्ना
अब व्यर्थ है समाज के ढँग मे खुद को ढालना
अब व्यर्थ है असंतोष मे परितोष को झाकना
अब व्यर्थ है स्त्री हूँ कह अपने सपनो को छाटना
अब व्यर्थ है अभिमानियों के लिए अपने स्वाभिमान को त्यागना
अब व्यर्थ है जिंदगी के सही अर्थ को न खोजना
अब अर्थ है कठिनाइ से लड़ उचाइयों को चूमना
अब अर्थ है आपस मे मिल, कदम से कदम नई राह जोड़ना
अब अर्थ है खुद को सुधार, नये समाज मे ढालना
अब अर्थ है सबको अपनाकर, धिकारिता को त्यागना
अब अर्थ है सपनो को, सानों की तरह जीना
अब अर्थ है खुद को, खुद की नज़र से चाहना।
अब अर्थ है नई विधि से, नये सिधांतों को स्वीकारना।